सांख्य दर्शन

सत्य, आत्मा अथवा परात्मा को पाने के लिए भारतीय ऋषियों द्वारा अनेक मार्ग उपलब्ध कराये गये। ‘सांख्य योग’ भी इसका एक परम मार्ग है, जिसमें दृष्टा द्वारा दृश्यों का सम्यक विश्लेषण कर त्रिविध दुःख - दैहिक, दैविक एवं भौतिक, से छुटकारा पाकर ‘नेति-नेति’ से परमात्मा ‘मोक्ष’ तक पहुँचा जाता है।
सांख्य भारत का गहनतम दर्शन है। सांख्य कहता है सभी चीजें प्रकृति से सम्बन्धित हैं, मात्र चेतना, ज्ञान जीवात्मा से सम्बन्धित है।
‘सांख्य’ की अवधारणा है कि सृष्टि - चेतन और अचेतन या पुरूष और प्रकृति का स्वरूप है। इसी को श्रीकृष्ण गीता में ‘क्षेत्रज्ञ’ और ‘क्षेत्र’ के नाम से सम्बोधित करते हैं।
पुरुष अथवा आत्मा चैतन्य स्वरूप है, जिसका निर्माण किसी तत्व से नहीं हुआ। यह नित्य और अजन्मा है। उपनिषदों में आत्मा को निर्गुण एवं असंग कहा गया है। ‘साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च’
प्रकृति त्रिगुणात्मक है, इसके तीन गुण सत, रज् और तम्स हैं। इन तीनों गुणों की साम्यवस्था मूल प्रकृति है। साम्यवस्था में ये अपने कारण रूप में स्थित होते हैं तथा कार्य में प्रवृत्त नहीं होते।
वैज्ञानिकों ने भी बड़े खोज के बाद यह माना है कि प्रकृति में सूक्ष्मतम पदर्थ के भी अन्तिम प्रमाणू को भी अगर तोड़ा जाय तो तीन तत्व- इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पाॅजिट्रान ही प्राप्त होते हैं, इन्ही से प्रमाणू बनता है। तम्स अवरोध या स्थिरता का तत्व है, बिना तम्स के किसी भी वस्तु में स्थिरता नहीं आ सकती, ग्रेविटी तमस् का ही रूप है। रज्स गति का तत्व है, एवं सत्व गति एवं अवरोध का संतुलन होता है। इन्हीं तीन शक्तियों को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा जाता है। इसमें ब्रह्मा पाॅजिट्रान है जो सृजन शक्ति है, शिव न्यूट्रान -नेगटिव शक्ति, जो विनाशक है एवं विष्णु इलेक्ट्रान शक्ति हैं, जो जीवन को सम्भालते हैं, जो सृजन एवं विनाश का संतुलन है। इन्हीं तीनों शक्तियों से सम्पूर्ण जगत कार्य करती है। प्रकृति के तीनों गुण परस्पर विरोधी होते हुये भी एक साथ समंजस्य से सृष्टि का उद्भव और विकास करते हैं।
पुरुष की प्रेरणा से प्रकृति के तीनों गुणों में हलचल होती है, जिससे ये कार्य में प्रवृत्त होने लगते हैं। सांख्य में ईश्वर को जगत् का अधिष्ठाता कहा गया है, जिसमें ईश्वर की उपस्थिति मात्र से अचेतन प्रकृति चेतनवत् कार्य करने लगती है।
प्रकृति अपने तीन गुणों सत्व, रज्स एवं तम्स के मिश्रण एवं विभिन्न मात्राओं से चैबीस तत्वों में प्रकट रहती है- आठ प्रकृतियां (मूल प्रकृति-चित, बुद्धि, अहंकार एवं पांच तन्मात्रायें- गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द) और सोलह विकृतियां (मन, पाँच स्थूलभूत या महाभूत- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ- श्रोत, चक्षु, रसना, त्वक् एवं घ्रण, पाँच कर्मेन्द्रियाँ- वाक, पाद, पायु, हस्त, उपस्थ)।
इन चैबीस तत्वों के ज्ञान के उपरान्त परमात्मा अर्थात पुरुष से मिलन हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में उल्लेख है कि ‘न हि सांख्य समं ज्ञानम्’ अर्थात यथार्थ ज्ञान तो सांख्य में ही है। भारत के समस्त शास्त्रों में सांख्य का उल्लेख किया जाता है। भगवत गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान कृष्ण, अर्जुन को सांख्य का ज्ञान देते हैं, इसीलिए इस अध्याय को ‘सांख्य योग’ शीर्षक दिया गया है। महात्मा बुद्ध द्वारा अपने साधना काल में सर्वप्रथम सांख्य का ज्ञान प्राप्त किया गया।
सांख्य दर्शन के अनुसार मूल प्रकृति की तीनों गुण साम्यावस्था में रहने पर प्रकृति और पुरुष ही ही रह जाते हैं। जब प्रकृति में विक्षेभ उत्पन्न होता है तो इन तीनों गुणों में विषमता आती है, तथा तीनों की अवस्था न्यूनाधिक होती है।
तीनों गुणों में ‘सत्व’ की प्रधानता होने पर महतत्व अर्थात बुद्धि का उद्भव होता है। प्रकृति का प्रमुख कार्य महत् है, जिसका स्वरूप निश्चायात्मक है, इसी कारण इसे बुद्धि भी कहा जाता है। महतत्व में रजस्व की प्रधानता होने से ‘अहंकार’ उद्भव होता है। अहंकार का अर्थ अन्य भाव या भेद, ‘मैं’ और ‘तू’ में भेद इससे बुद्धि सिकुड़ जाती है। ‘बुद्धि’ और ‘अहंकार’ के उद्भव से परमात्मा से दूरी होने लगती है।
अहंकार के दो भाग हैं, तमस अहंकार और सात्विक अहंकार। ‘अहंकार’ में तमस की प्रधानता से पंचतन्मात्राओं - गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द की उत्पति होती है।
इन सूक्ष्म पंचतन्मात्राओं में तमोगुण की प्रबलता से महाभूत- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश का उद्भव होता है। ‘शब्दतन्मात्रा’ से ‘आकाश’, ‘स्पर्शतन्मात्रा’ से ‘वायु’, ‘रूपतन्मात्रा’ से ‘अग्नि’, ‘रसतन्मात्रा’ से ‘जल’ एवं ‘गन्धतन्मात्रा’ से ‘पृथ्वी’ की अविव्यक्ति होती है। इन पाँच स्थूलभूतों में त्रिगुणों की विषमतायें ‘जड़ सृष्टि’ एवं ‘देह’ का निर्माण करते हैं। यह समस्त प्रक्रिया प्रकृति की विकृति है।
‘अहंकार’ में सात्विक गुण की प्रधानता से ‘मन’ तथा ‘पाँच ज्ञानेन्द्रिय’- श्रोत, चक्षु, रसना, त्वक् एवं घ्रण, एवं ‘पाँच कर्मेन्द्रिय‘ - वाक, पाद, पायु, हस्त, उपस्थ की अभिव्यक्ति होती है। इन एकादश इन्द्रियों का कारण सत्वगुण प्रधान अहंकार होने से इनका रूप क्रिया एवं ज्ञान में प्रकाशित होता है। मन के सहयोग से कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ द्वारा कार्य प्रवृत होती हैं। मन का प्रत्येक इन्द्री से सानिध्य होने के कारण यह उभयात्मक कहलाता है। इन्द्रियाँ अहंकार से उत्पन्न होती है, इसलिए ये आहंकारिक कही जाती है।
‘पाँच ज्ञानेन्द्रियों’ के विषय -वाक्, पाणि, पाद, पायु, तथा उपस्थ हैं। ‘पाँच कर्मेन्द्रियों’ के विषय- वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग तथा आनन्द हैं।
‘मन’ उभयात्मक है, क्योंकि इसके कर्मेन्द्रियों के सार्थ कार्य करने पर यह कर्मेन्द्रिय स्वरूप हो जाता है तथा ज्ञानान्द्रियों के साथ कार्य करने पर ज्ञानेन्द्रिय स्वरूप हो जाता है।
अन्तःकरण (बुद्धि, अहंकार, मन), ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं तन्मात्राएँ कुल अट्ठारह तत्वो से सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है। आत्मा इस सूक्ष्म शरीर से घिर जाती है। यह सूक्ष्म शरीर भी स्थूल शरीर में निवास करता है। स्थूल शरीर पाँच महाभूतों (आकाश, तेज, वायु, जल एवं पृथ्वी) से निर्मित होता है। देह के सम्पूर्ण वाह्य एवं आन्तरिक अवयव पृथवी तत्व से निर्मित होते हैं, जल तत्व इन अवयवों को रक्तादि धातुओं से जोड़ता है। वायु तत्व प्राण, रक्तादि धातुओं व मलों का स्थूल देह में संचालन करता है। पाचन तन्त्र एवं देह में ऊर्जा संचारण अग्नि व तेज तत्व से संभव होती है। बाह्य एवं अन्तःकरण सभी जगह रिक्त अथवा अवकाश, आकाश तत्व से निर्मित है। महाभूतों से शरीर के पँचकोष- पृथ्वी से अन्नमय कोष, वायु से प्राणमय कोष, जल से मनोमय कोष, तेज से विज्ञानमय कोष, एवं आकाश से अण्डमय कोष निर्मित होते हैं। आकाश तत्व से ही काल एवं दिशा की उत्पति होती है।
सूक्ष्म शरीर सभी कार्य स्थुल शरीर की सहायता से ही कर पाता है। सूक्ष्म शरीर को जगत में प्रत्यक्ष रूप से रहने के लिए स्थुल शरीर की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म एवं स्थुल शरीर के कार्यशील रहने हेतु लौकिक आवश्यकतायें जनमती हैं, जिससे त्रिविध दुःख उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार ‘प्रकृति’ के विकृत हो जाने से परमात्मा से दूरी हो जाती है, एवं त्रिविध दुःख - दैहिक, दैविक एवं भौतिक उत्पन्न होते हैं। सांख्य शास्त्र तत्वों के वास्तविक ज्ञान से इस त्रिविध दुःख को समाप्त कर पुनः परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। इसी को योग में समाधि तथा भक्ति में ‘मोक्ष’ कहते हैं। सांख्य के अनुसार इसका प्रमुख साधन ‘ज्ञान’ मात्र है, ‘तत्वों’ का ज्ञान।
त्रिविध दुःखात्यन्तनिवृतिरत्यन्तपुरुषार्थः
अज्ञानता के कारण मनुष्य त्रिविधदुःख निवारण हेतु लौकिक आकांक्षायें करता है। लौकिक अकांक्षाओं की प्राप्ति के प्रयासों से लौकिक दुःख उत्पन्न होते हैं-
1. अर्जन की आकांक्षा- प्राप्ति में दुःख
2. रक्षण की आकांक्षा- प्राप्ति के रक्षण में दुःख
3. क्षय - रक्षित के विनाश में दुःख। जिस भी वस्तु का अस्तित्व है, आकार है, उसका नष्ट होना सुनिश्चित है। सभी सांसारिक वस्तुयें क्षणिक हैं।
4. भोग- भोग तथा भोग की कामना का दुःख
5. हिंसा की आकांक्षा- रक्षण हेतु हिंसा का दुःख
पँचन्द्रियों के द्वारा ही बुद्धि बाहरी विषयों से सम्पर्क स्थापित करती है एवं सांसारिक साधनों से एक दुःख दूर होता है तो दूसरे दुःख उत्पन्न हो जाते हैं। सांसारिक उपायों से त्रिविधदुःख निवारण में मनुष्य सांसारिक जाल, जन्म-मृत्यु जाल में फंस जाता है।
सांसारिक भोग कामना से दुःख प्राप्त होता है, उस कामना से जो भोग प्राप्त होते हैं वे भी दुःखद होते हैं।
समस्त दुःख निवृति हेतु आत्यांतिक उपाय एक मात्र मोक्ष ही है। प्रकृति-पुरूष, अचेतन-चेतन के ज्ञान से ही बन्धन मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्ति सम्भव है। विवेकबुद्धि प्राप्त होते ही पुरूष स्वयं को निर्लिप्त पाता है एवं अपने स्वरूप को पहचान लेता है।
सांख्य में महर्षीकपिल कहते हैं- ‘‘प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकारचेष्टानात् पुरुषार्थत्वम्।’’ अर्थात जिस प्रकार भोज्य पदार्थों से प्रतिदिन भूख शान्त होती है, उसी प्रकार दृष्टा होकर त्रिविध दुःख प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने पर निवृत हो जाते हैं। लौकिक उपायों से लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो सकती है, पर दुःखों से पूर्णरूपेण मुक्ति ज्ञान से ही सम्भव है।
प्रकृति और पुरुष का परस्पर संयोग अज्ञान के कारण होता है। ज्ञान से चेतन और अचेतन का भेद स्पष्ट हो जाता है, अज्ञानता नष्ट होने से पुरुष का सम्पर्क प्रकृति छूट जाता है।
‘सांख्य’ शुद्ध ज्ञान है, जिसमें परमात्मा को पाने के लिए साधना करने की जरूरत नहीं सिर्फ जानना है। निरन्तर साधना का उपयोग मात्र उक्त समस्त चैबीस तत्वों के शीघ्र साक्षात अनुभव करने हेतु किया जा सकता है।